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कविता

ससुराल से बहन

हरप्रीत कौर


एक

उठा लाई है
अधबुना स्वेटर
अधसिला कुर्ता
आते वक्त रास्ते में
रिक्शा रोक कर
खरीद लाई है नीबू
थोड़ी हरी मिर्च
सोचते हुए
'अचार भी यहीं बना लूँगी'
इतने दिन क्या करूँगी
खाली-खाली
बारहखड़ी सिखा दूँगी बच्ची को
साथ ही भर लाई है
स्कूली बस्ते
ससुराल से आई है बहन
साथ ही चला आया है घर

दो

हमने साथ-साथ
मनाऐ त्यौहार
साथ-साथ खेले खेल
साथ-साथ हँसे
साथ-साथ रोए
वह चली गई ससुराल
साथ-साथ ले गई त्यौहार
साथ-साथ खेल
साथ-साथ हँसना, रोना
अब कभी-कभी आती है वह
बस तीज त्यौहार
अपने बच्चों सँग खेलती हुई
मैं दूर ही रहता हूँ उससे
कभी-कभी
अपने बच्चों के नाम से ही
पुकारने लगती है मुझे
गुस्साने लगता हूँ भीतर ही भीतर
एक नाम तक याद नहीं रख पाई
और फिर शर्माने लगता हूँ उससे
जैसे वह कोई सखी हो मेरी
जो बीच के बरसों में रूठी रही
और अब आ गई है अचानक

तीन

रात भर
बतियाती रहती है माँ
रोज-रोज थोड़े ही आती हैं
ससुराल से बेटियाँ
वैलवेट के तकिए
निकाल लाया है भाई
रोज-रोज थोड़े ही सोएगी
बरामदे में दीदी
पिता छील-छील कर खिलाते हैं गन्ना
ससुराल में थोड़े मिलता होगा ऐसा स्वाद
ससुराल से आती है बहन
सब लग जाते हैं काम पर

चार

गाय के पास खड़ा है बछड़ा
टुकटुक देख रहा है बाहर
शायद दरवाजे से अभी अभी बाहर गई है माँ
बरसाती टँगी है
बरामदे में
अपने ठिकाने पर
पड़े हैं हल
बैल खड़े हैं चुपचाप
यहीं कहीं होंगे पिता
बिखरी पडी हैं किताबें
रो रही है बच्ची
टेलीफोन बज रहा है
अपनी जगह पर
'कहाँ गई होगी बहन
इस वक्त, सब बिखरा-बिखरा छोड़ कर'
 


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